*नित्य "संध्या" क्यों आवश्यक?* मुनष्य के उपर जन्म से ही देव-ऋण,पितृ-ऋण व ऋषि-ऋण होता है इस ऋण से मुक्ति के लिये शास्त्र में क्रमशः देव पूजन,तर्पण व संध्या करने की युक्ति बतलायी गई है।जिसे नित्य करने से हम तीनों ऋणों से हम मुक्त हो जाते है।तीनों न कर सकने की स्थिति में अगर हम केवल संध्या ही कर लेते हैं तो उसी के फल स्वरूप तीनों ऋणों की पूर्ति हो जाती है।यही संध्या की महिमा है।यह नित्य छः कर्म- *संध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम्।* *वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने।।* {प्रत्येक द्विजातियों को संध्या,स्नान,जप,देव पूजन,वैश्वबलि कर्म व अतिथि सेवा} के ही अन्तर्गत संध्या का वर्णन शास्त्र में है।अतः इससे स्पष्ट है कि संध्या हमारे नित्य कर्म का ही एक महत्वपूर्ण अंग है। संध्या तीन काल प्रातः,मध्याह्न व सायं में करने शास्त्रीय विधान है। इसी को त्रिकाल संध्या कहते है।प्रमाण- *संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजोनात्मविदा सदा।* (अत्रिस्मृति) *संध्या करने से लाभ* मनुष्य को जाने अनजाने में प्रायः कुछ न कुछ पाप हो ही जाता हैं। अतः प्रातः संध्या से रात्रिके और सायं संध्या से दिन के समस्त पाप नष्ट हो जाते है। संध्या एक प्रकार का प्रायश्चित्त कर्म भी है।आगे वर्णन है कि जो व्यक्ति अन्य किसी कर्म (यज्ञ अनुष्ठान आदि) न करके केवल संध्याकर्म ही करले तो वह समस्त पुण्य का भागी बन जाता है।इसके विपरीत अन्य समस्त सत्कर्मों का अनुष्ठान करने पर भी संध्या न करने से हमें समस्त फल से वंचित होकर उल्टे पाप का भागी होना पड़ता है।अतः इसका लोप कभी भी नहीं करना चाहिये। कभी संध्या काल(समय) का लोप जाये पर संध्याकर्म का लोप नहीं होना चाहिये। जो नित्य संध्या करता है उसको बाह्य और आन्तरिक दोनों ही दोष नहीं प्राप्त होते है जैसे प्रकाश के पास अन्धेरा नहीं जा सकते। *संध्या न करनेसे हानि* जो संध्या नहीं जानता या जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता,वह जीते जी शूद्रके समान हो जाता है व मरने पर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है।संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है।उसे किसी भी धार्मिककर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो भी करता है उसका फल नहीं मिलता है। *शौनकमुनि* कहते हैं कि यदि किसी के द्वारा प्रमादवश सात रात तक संध्याकर्मका लोप हो जाये तो उसे पुनः उपनयन- संस्कार करना चाहिये। प्रमाण--- *संध्यातिक्रमणं यस्यं सप्तरात्रमपि च्युतम्।* *उन्मत्तदोषयुक्तो वा पुनः संस्कारमर्हति।।* *संध्या न करने का दोष कहाॅ नहीं लगता* जमदग्नि वचन- *राष्ट्रभंगे नृपक्षोभे रोगार्ते सूतकेऽपि वा।* *संध्यावन्दनविच्छित्तिर्न शेषाय कथञ्चन।।* अर्थात राष्ट्र का ध्वंश हो रहा हो,राजा के चित्त में क्षोभ हुआ हो अथवा अपना शरीर रोगग्रस्त हो जाये या जनन- मरणरूप अशौच प्राप्त हो जाये या संकट में फस जाये- इन कारणों से संध्याकर्म का लोप हो जाये तो दोष नहीं लगता है और उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं है। *अतः सभी द्विजातियों से खासकर ब्राह्मणों से कर बद्ध प्रार्थना है ,निवेदन है कि राष्ट्र हित के लिये,समाज हित के लिये,लोक व प्रलोक हित के लिये संध्या जरूर करें।न तीनों बार हो सके तो कमसे कम दो बार तो करें हीं।क्योंकि कहा गया है कि संध्या करने से भले ही कोई लाभ न हो परन्तु न करने से हानि होती है।।अतः आप जरूर से जरूर संध्या करें।।* *पं• हेमन्त शास्त्री* *व्याकरणाचार्य* *श्यामनगर कानपुर* *मो● ९८८९६२५३५१*